जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाये तरुवर की छाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया मेरे राम।
भटका हुआ मेरा मन था कोई मिल न रहा था सहारा।
लहरों से लड़ती हुई नाव को जैसे, मिल न रहा हो किनारा।
उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------
शीतल बने आग चन्दन के जैसी राघव कृपा हो जो तेरी।
उजियाली पूनम की बन जाएँ रातें जो थीं अमावस अँधेरी।
युग युग से प्यासी मारभूमि ने, जैसे सावन का सन्देश पाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------
जिस राह की मंज़िल तेरा मिलान हो, उस पर क़दम मैं बढ़ाऊँ।
फूलों में खारों में पतझड़ बहारों में मैं न कभी डगमगाऊं।
पानी के प्यासे को तक़दीर ने जैसे जी भर के अमृत पिलाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------
भजन १२७ : भक्ति गीतांजलि, आचार्य बालकृष्ण जी, दिव्य प्रकाशन, हरिद्वार
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया मेरे राम।
भटका हुआ मेरा मन था कोई मिल न रहा था सहारा।
लहरों से लड़ती हुई नाव को जैसे, मिल न रहा हो किनारा।
उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------
शीतल बने आग चन्दन के जैसी राघव कृपा हो जो तेरी।
उजियाली पूनम की बन जाएँ रातें जो थीं अमावस अँधेरी।
युग युग से प्यासी मारभूमि ने, जैसे सावन का सन्देश पाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------
जिस राह की मंज़िल तेरा मिलान हो, उस पर क़दम मैं बढ़ाऊँ।
फूलों में खारों में पतझड़ बहारों में मैं न कभी डगमगाऊं।
पानी के प्यासे को तक़दीर ने जैसे जी भर के अमृत पिलाया।
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------
भजन १२७ : भक्ति गीतांजलि, आचार्य बालकृष्ण जी, दिव्य प्रकाशन, हरिद्वार
[नोट: 'रमेति रामः' - जो परमात्मा कण कण में बसा हुआ है उसे राम कहते हैं। और एक राम लगभग साढ़े आठ लाख वर्ष पूर्व हुए दशरथ नंदन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चंद्र जी। जिन्होंने अपने जीवन में एक भी पाप नहीं किया अतः भगवान् राम के नाम से जाने जाते हैं। ]
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