Wednesday, December 13, 2017

कविता : मृत्यु

मृत्यु 

एक वन है ये संसार
गरज रहे है जहाँ वनराज
और रहे हाथी चिंघाड़
आग लगी है उसमें तीव्र
वहाँ फँसा है एक फ़र्द
करता प्रभु से वह पुकार
दे दो मुझको जीवन दान।


एक वृक्ष दिया उसे दिखाई
जो जलाशय के है पास
चढ़ा पेड़ पर हो के उदास
देखा उसने एक सर्प को
चढ़ ऊँची शाखा के पास
सर्प उसी के पास को
आता दिया दिखाई।

देख छह शिर के हाथी को
नहीं युक्ति कोई पायी
देख तोड़ते उस वृक्ष को
कुछ न देता उसे सुझाई।

साथ देख चूहे काले सफ़ेद
कुतरते शाख उसी को
जिस पर बैठा मानव धीर
बहुत भय से हुआ अधीर।

टपक रहा ऊपर शहद को
देख शांति उसने पाई
भूल गया उस मौत को जो अब आई अब आई

बोले विदुर धृतराष्ट्र से
क्या है इस जीवन का सार
यहीं दीखता है ये संसार

प्राण ध्वनि है बनी है चिंघाड़
अग्नि है गर्भाशय की
और वृक्ष है ये संसार
अवश्यम्भावी है ये मृत्यु
सर्प रूप में देती दिखाई
बचने की इस मृत्यु से
नहीं युक्ति देती कोई सुझाई।

छः ऋतुएं हैं सम हाथी के
चूहें हैं ये दिन और रात
काम क्रोध मद मोह लोभ
मत्सर हैं शहद के रूप
इस तरह मधु चाह में
भूले बैठा है मृत्यु को।


विशेष:

आने वाली मृत्यु पर
रोते हैं ये सब ही क्यूँकर
मरता है पञ्च भौतिक शरीर
या हमारी आत्मा
जब आती है ये मौत
पञ्च तत्व मिलें पांच में
और आत्मा कभी नहीं मरे।

न ही ये कभी जले
न सुखाई जाये
न ही ये कभी भीगे
इस तरह हम जान गए
मृत्यु शब्द है अज्ञानी का
ये मरने पर भी नहीं मरे
आये ये यम वायु से

जायेंगे यम वायु में
जब जन्म लें कभी
तब मृत्यु भी है सही।

तभी तो यह उक्ति ही है सही
भस्मन्तम् शरीरम्
गति शरीर की है सही
समझो जो मर गया
समझो शरीर न मरा
न कहीं गया
प्राण थम गए क्यूँकि
आत्मा गया
मित्रों! कर्मों की गति से
कहीं और को गया
आत्मा अमर है
इसलिए न रोओ सखे!
यही वचन है मेरी शिक्षा।

(स्वरचित)

आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

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