Friday, December 22, 2017

जाग गए अब सोना क्या रे



जाग गए अब सोना क्या रे।  जाग गए अब सोना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।

जो नर तन देवन  को दुर्लभ सो पाया फिर रोना क्या अब।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।

हीरा हाथ अमोल सहाय। काँच भाव से खोना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।

जब वैराग्य ज्ञान घिर आया तब जाने और सोना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे।जाग गए अब सोना क्या रे।

गाये सुजन सुवन में घिर के।  भार सभी का ढोना  क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे।जाग गए अब सोना क्या रे।

ईशवर से कर नेह बावरे।  इन्द्रिय के वश होना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।

ॐ नाम का सुमिरन कर ले।  अंत समय में होना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।

जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।
जाग गए अब सोना क्या रे। जाग गए अब सोना क्या रे।

(महर्षि दयानन्द गुरुकुल, चोटीपुरा की ब्रह्मचारिणियों द्वारा गए भजनों से साभार )


आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

चल पड़े पहर जिस ओर पथिक

पा, सा  नी सा , सा  नी सा , सा  नी सा,  नी,  धा पा नी, नी धा  नी, नी धा नी, नी धा नी, धा, पा मा गा, धा  पा धा धा पा धा, धा पा धा, पा, मां गा, मा, पा सा नी सा 

चल पड़े पहर जिस ओर पथिक उस पथ पर फिर डरना कैसा। 
यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर..... 

हो कर चलने को उद्यत तुम न तोड़ सके बंधन घर के। 
सपने सुखमय भव के राही न छोड़ सके अपने उर के। 
जब शोलों पर ही चलना है पग फूंक फूंक रखना कैसा। 
ये रुक रुक कर बढ़ना कैसा। ये रुक रुक कर बढ़ना कैसा।
चल पड़े पहर जिस ओर पथिक उस पथ पर फिर डरना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर..... 


पहले ही तुम पहचान चुके ये पथ तो काँटों वाला है। 
पग पग पर पड़ी शिलायें हैं कंकड़मय काँटों वाला है। 
दुर्गम पथ अँधियारा छाया फिर मखमल का सपना कैसा।
यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर पथिक उस पथ पर फिर डरना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर..... 

होता है प्रेम फ़क़ीरी से इस पथ पर चलने वालों को। 
पथ पर बिछ जाना पड़ता है इस पथ पर बढ़ने वालों को। 
यह राह भिखारी बनने की सुख वैभव का सपना कैसा। 
यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर पथिक उस पथ पर फिर डरना कैसा।  
चल पड़े पहर जिस ओर..... 

इस पथ पर बढ़ने वालों को बढ़ना ही  है जीवन आता। 
आती जो पग में बाधाएं  उन से बस लड़ना ही आता। 
तुम भी जब चलते उस पथ पर फिर रुकना और झुकना कैसा। 
यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। यह रुक रुक कर बढ़ना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर पथिक उस पथ पर फिर डरना कैसा। 
चल पड़े पहर जिस ओर..... चल पड़े पहर जिस ओर.....चल पड़े पहर जिस ओर.....

(महर्षि दयानन्द गुरुकुल, चोटीपुरा की ब्रह्मचारिणियों द्वारा गए भजनों से साभार )

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 


Wednesday, December 13, 2017

कविता : मृत्यु

मृत्यु 

एक वन है ये संसार
गरज रहे है जहाँ वनराज
और रहे हाथी चिंघाड़
आग लगी है उसमें तीव्र
वहाँ फँसा है एक फ़र्द
करता प्रभु से वह पुकार
दे दो मुझको जीवन दान।


एक वृक्ष दिया उसे दिखाई
जो जलाशय के है पास
चढ़ा पेड़ पर हो के उदास
देखा उसने एक सर्प को
चढ़ ऊँची शाखा के पास
सर्प उसी के पास को
आता दिया दिखाई।

देख छह शिर के हाथी को
नहीं युक्ति कोई पायी
देख तोड़ते उस वृक्ष को
कुछ न देता उसे सुझाई।

साथ देख चूहे काले सफ़ेद
कुतरते शाख उसी को
जिस पर बैठा मानव धीर
बहुत भय से हुआ अधीर।

टपक रहा ऊपर शहद को
देख शांति उसने पाई
भूल गया उस मौत को जो अब आई अब आई

बोले विदुर धृतराष्ट्र से
क्या है इस जीवन का सार
यहीं दीखता है ये संसार

प्राण ध्वनि है बनी है चिंघाड़
अग्नि है गर्भाशय की
और वृक्ष है ये संसार
अवश्यम्भावी है ये मृत्यु
सर्प रूप में देती दिखाई
बचने की इस मृत्यु से
नहीं युक्ति देती कोई सुझाई।

छः ऋतुएं हैं सम हाथी के
चूहें हैं ये दिन और रात
काम क्रोध मद मोह लोभ
मत्सर हैं शहद के रूप
इस तरह मधु चाह में
भूले बैठा है मृत्यु को।


विशेष:

आने वाली मृत्यु पर
रोते हैं ये सब ही क्यूँकर
मरता है पञ्च भौतिक शरीर
या हमारी आत्मा
जब आती है ये मौत
पञ्च तत्व मिलें पांच में
और आत्मा कभी नहीं मरे।

न ही ये कभी जले
न सुखाई जाये
न ही ये कभी भीगे
इस तरह हम जान गए
मृत्यु शब्द है अज्ञानी का
ये मरने पर भी नहीं मरे
आये ये यम वायु से

जायेंगे यम वायु में
जब जन्म लें कभी
तब मृत्यु भी है सही।

तभी तो यह उक्ति ही है सही
भस्मन्तम् शरीरम्
गति शरीर की है सही
समझो जो मर गया
समझो शरीर न मरा
न कहीं गया
प्राण थम गए क्यूँकि
आत्मा गया
मित्रों! कर्मों की गति से
कहीं और को गया
आत्मा अमर है
इसलिए न रोओ सखे!
यही वचन है मेरी शिक्षा।

(स्वरचित)

आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

Wednesday, November 22, 2017

समय सारिणी

 

३:३०                      :           जागरण, नित्य कर्म 
४:००-४:०५            :           प्रातः कालीन मन्त्र 
४:०५-४:३५           :           अध्ययन 
४:३५-४:५०           :           स्नान 
४:५०-५:२५           :           योग, ध्यान
४:२५-५:४५           :           जप 
५:४५ -६:००           :           गृह शुद्धि 
६:००-६:३०              :           संध्या,  स्तुति   
६:३० -७:३०            :           ---- 
७:३०-८:३०             :           बैच 
८:३०-१०:००            :           कम्प्यूटर शॉप
१०:००-१:००             :           विविधा 
१:००                        :           भोजन व विश्राम 
२:३०-३:३०              :          ----
३:३०-४:००              :          बैच 
४:०० -५:००             :          बैच 
५:०० -६:००             :          बैच
६:०० -७:००             :          बैच
७:००-८:००              :          ---- 
८:००-९:००               :          ----
९:००-९:३०               :          अध्ययन 


अनुभव शर्मा 

चन्द्र विज्ञान व सूर्य विज्ञान

ॐ 
चन्द्र विज्ञान व सूर्य विज्ञान 



भाइयों व बहनों! हम निम्नलिखित रसायन विज्ञान की समीकरण को ज़रा गौर से देखें -



                             Sun Light, Chlorophyll
6CO2 + 6H2O          ------------------->            C6H12O6 + 6O2



इस समीकरण के अनुसार ही हरे पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड और जल की मदद से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पत्तियों के द्वारा भोजन (ग्लूकोज़ ) का निर्माण करते हैं। 
परन्तु सूर्य विज्ञान से सम्बंधित यह बात कि सूर्य की किरणों से पौधों में भोजन का निर्माण होता है और यही भोजन अन्य जीवधारियों के भी काम आता है, ही आज कल ज्ञात एक मात्र मत है जो कि फल, फूल, सब्जियों आदि भोजन बनाने में सहायक माना जाता है। 

अर्थात सभी प्राणियों के भोजन का प्रबंध प्रकाश संश्लेषण नाम की इस प्रक्रिया मात्र से ही पौधों व वृक्षों के द्वारा किया जाता है।  यह ही एक मात्र ज्ञात तथ्य हमारे सामने आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रस्तुत किया है। 

परन्तु आपको जानकर अति हर्ष होगा कि हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों व ऋषियों ने चन्द्रमा के प्रकाश से सम्बंधित चंद्र किरणों का विज्ञान भी प्रकट किया है जो कि फल आदि के पकने व उनके निर्माण में अत्यधिक लाभदायक है। 

उन्होंने यह तथ्य (नियम) निर्देशित किया है कि सूर्य फलों के रस को खैंचता है, अवशोषित किया करता है।  और चन्द्रमा रात्रि में फलों में रस को भरण करता है। इसी रसों के खींचने और भरण करने की प्रक्रिया के द्वारा ही फलों के अंदर पकने (maturity) की प्रक्रिया होती है। 

चन्द्रमा की किरणों में शीतलता प्रधान होती है और सूर्य की किरणों में उष्णता। यह ही गुण इन आकाशीय पिण्डों के द्वारा पृथ्वी पर भोजन निर्माण में सहायक होता है। 



आपका 
अनुभव शर्मा 

Tuesday, November 21, 2017

सुखी कोई परिवार नहीं।

परमपिता से प्यार नहीं और शुद्ध रहे व्यवहार नहीं।
इसीलिए तो आज देखलो सुखी कोई परिवार नहीं।
परमपिता से प्यार नहीं -------------------।।

अन्न, फूल, फल, मेवाओं को समय समय पर देता।
लेकिन है आश्चर्य यहीं कि बदले में कुछ नहीं लेता।
करता है इंकार नहीं, भेदभाव तक़रार नहीं।
परमपिता से प्यार नहीं -------------------।।


मानव चोले में न जाने कितने यन्त्र लगाये हैं।
क़ीमत कोई माप सका न, ऐसे अमूल्य बनाये हैं।
कोई अंग बेकार नहीं, पा सकता कोई पार नहीं।
ऐसे कारीगर का बन्दे करता ज़रा विचार नहीं।
परमपिता से प्यार नहीं -------------------।।


जल, वायु और अग्नि का वो लेता नहीं किराया है।
सर्दी, गर्मी, ऋतु बसन्त का सुन्दर चक्र चलाया है।
लगा कहीं दरबार नहीं, कोई सिपा सालार नहीं।
कर्मों का फल देता बराबर रिश्वत की सरकार नहीं।
परमपिता से प्यार नहीं -------------------।।


सूर्य, चाँद, तारों का न जाने, कहाँ बिजलीघर बना हुआ।
पल भर को धोखा नहीं देते कहाँ पे तार जुड़ा हुआ।
खम्भा है न कोई तार नहीं, खड़ी कोई दीवार नहीं।
ऐसे शिल्प कार  का रे तू बन्दे, करता ज़रा विचार नहीं।

(भजन ९९, भक्ति गीतांजलि, आचार्य बालकृष्ण जी, दिव्य प्रकाशन )


प्रस्तुत कर्ता
अनुभव शर्मा

(भजन ९९, भक्ति गीतांजलि, आचार्य बालकृष्ण जी, दिव्य प्रकाशन )

Monday, November 20, 2017

राम चंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलियुग आयेगा

हे जी रे हे जी रे हे जी रे 

राम चंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलियुग आयेगा हंस चुगेगा दाना गुनका कव्वा मोती खायेगा। हे जी रे हे जी रे। 

सिया ने पूछा, "भगवन कलियुग में धर्म करम को कोई नहीं मानेगा?",  तो प्रभु बोले-

धरम भी होगा करम भी होगा, परन्तु शर्म नहीं होगी, बात बात में मात पिता को बेटा आँख दिखायेगा। हे राम चंद्र कह गए सिया से। 

राजा और प्रजा दोनों में होगी निसिदिन खींचा तानी, खींचा तानी, क़दम क़दम पर करेंगे दोनों अपनी अपनी मनमानी, मनमानी, जिस के हाथ में होगी लाठी, भैंस वहीँ ले जायेगा। 
हंस चुगेगा दाना गुनका कव्वा मोती खायेगा। हे राम चंद्र कह गए सिया से। 

सुनो सिया कलजुग में काला धन और काले मन होंगे, काले मन होंगे। चोर उचक्के नगर सेठ, और प्रभु भक्त निर्धन होंगे, निर्धन होंगे।  जो होगा लोभी  और भोगी वो जोगी कहलायेगा। हंस चुगेगा दाना गुनका कव्वा मोती खायेगा। हे राम चंद्र कह गए सिया से। 


मंदिर सूना सूना होगा भरी रहेंगी मधुशाला, मधुशाला।  पिता के संग संग  भरी सभा में नाचेगी घर की बाला, घर की बाला।  कैसा कन्या दान पिता ही कन्या का धन खायेगा। हंस चुगेगा दाना गुनका कव्वा मोती खायेगा। हे राम चंद्र कह गए सिया से। 

हे मूरख की प्रीत बुरी जुए की जीत  बुरी,बुरे संग बैठ चैन भागे ही भागे। काजल की कोठरी में कैसा ही जतन करो काजल का दाग भाई लागे ही लागे, काजल का दाग भाई लागे ही लगे। 

हे कितना जती हो कोई कितना सती हो कोई कामिनी के संग काम जागे ही जागे। हो सुनो कहे गोपीराम जिसका है काम नाम उसका तो फंद गले लागे ही लागे रे भाई उसका तो फंद गले लागे ही लागे। 


प्रस्तुत कर्त्ता -

आपका अपना 
अनुभव शर्मा 

Friday, November 17, 2017

जैसे सूरज की गर्मी से

जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाये तरुवर की छाया। 
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया मेरे राम। 


भटका हुआ मेरा मन था कोई मिल न रहा था सहारा। 
लहरों से लड़ती हुई नाव को जैसे, मिल न रहा हो किनारा। 
उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया। 
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------


शीतल बने आग चन्दन के जैसी राघव कृपा हो जो तेरी। 
उजियाली पूनम की बन जाएँ रातें जो थीं अमावस अँधेरी। 
युग युग से प्यासी मारभूमि ने, जैसे सावन का सन्देश पाया। 
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------


जिस राह की मंज़िल तेरा मिलान हो, उस पर क़दम मैं बढ़ाऊँ। 
फूलों में खारों में पतझड़ बहारों में  मैं न कभी डगमगाऊं। 
पानी के प्यासे को तक़दीर ने जैसे जी भर के अमृत पिलाया। 
ऐसा ही सुख मेरे मन को ----------------------------------



भजन  १२७ : भक्ति गीतांजलि, आचार्य बालकृष्ण जी, दिव्य प्रकाशन, हरिद्वार 


[नोट: 'रमेति रामः' - जो परमात्मा कण कण में बसा हुआ है उसे राम कहते हैं। और एक राम लगभग साढ़े आठ लाख वर्ष पूर्व हुए दशरथ नंदन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चंद्र जी।  जिन्होंने अपने जीवन में एक भी पाप नहीं किया अतः भगवान् राम के नाम से जाने जाते  हैं। ]

भजन जनम सफल होगा रे बन्दे

बोलो राम जय जय राम बोलो  राम। 
बोलो राम जय जय राम बोलो राम।टेक।


जनम सफल होगा रे बन्दे। मन में राम बसा ले। मन में राम बसा ले। 
राम नाम के मोती को सांसों की माला बना ले। मन में राम बसा ले। 

राम पतित पावन करुणाकर और सदा सुखदाता। 
सरस सुभावन अति मन भावन राम से प्रीत लगा ले। 
मन में राम बसा ले। 
बोलो राम जय जय राम बोलो राम। 


मोह माया झूंठा बंधन त्याग उसे ऐ प्राणी। 
बोलो राम जय जय राम बोलो राम। 
राम नाम की ज्योत जलाकर अपना भाग्य जगा ले। 
मन में राम बसा ले। 


राम भजन में डूब के अपनी निर्मल कर ले काया। 
राम भजन से प्रीत लगा के जीवन पार लगा ले। 
मन में राम बसा ले।  
बोलो राम जय जय राम बोलो राम। 
बोलो राम जय जय राम बोलो राम। 






[नोट: 'रमेति रामः' - जो परमात्मा कण कण में बसा हुआ है उसे राम कहते हैं। और एक राम लगभग साढ़े आठ लाख वर्ष पूर्व हुए दशरथ नंदन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चंद्र जी।  जिन्होंने अपने जीवन में एक भी पाप नहीं किया अतः भगवान् राम के नाम से जाने जाते  हैं। ]


प्रस्तुतकर्ता 

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

Tuesday, November 14, 2017

बैरक १४ - ए

कुछ मुख्य व्यक्ति 
बैरक १४ - ए  पर एक कविता


सन २०१४ अक्टूबर में मेरे ऊपर चार तीन मुक़दमे (झूंठे ) स्व पत्नी के द्वारा डाल दिए जाने के कारण  मुझको जेल जाना पड़ा था। वहाँ की यादें मुझे झकझोर देती हैं।  मैंने वहाँ लेखन कार्य किया था और कुछ कवितायेँ भी बनाई थीं।  उनमे से एक प्रस्तुत है - (कृपया यदि पसंद आये तो कमेंट करना न भूलें )-



यहाँ हैं पंडित पूरे  पाँच। 
विपिन, अरुण, नीरज, गौरव और मैं। 
सब ही बैरक के रखवारे हैं। 
नहीं ये जातिवाद, झगडे के पोषक। 
ऊँची शिक्षा वाले हैं। 


[विपिन पाण्डेय ]
कुशल गणित विद्या में हैं राईटर 
पंडित जगन्नाथ महाराज 
जिन्हें देख सुन शान्त हो जाते बंदी 
ऐसी फितरत वाले हैं। 
शांत, प्रसन्न व कुशल चंद्र सम 
ऊँची क़िस्मत वाले हैं। 
प्रिय, मधुर, तीखी, मधुर वाणी 
सब ही मुख में धारे हैं। 


[करतार सिंह ]
एक हैं नेता जी करतार 
कुशल वचन भाषण में उनके 
है उनकी माया अपरम्पार 
सिंह समान गरजे हैं अबके 
मंच हो, सभा हो या हो बंदी स्थल 
शुद्ध श्वेत परिधान भारतीय 
टोपी, बण्डी सब उनकी शान 
है स्वदेशी, स्वदेश तथा भारतीयता की पहचान 
प्रशंसा सदगुणी व्यक्ति की करना है 
उनकी वाणी में विद्यमान 
बांटना, सत्कार करना व मग्न रहना 
उनके ये गुण निश्चित ही हैं महान 


[सोमपाल सिंह चौधरी ]
सुबह सवेरे ब्रह्म मुहूर्त में 
नित्य ही जाग जाते हैं। 
साधु सामान व्यवहार है जिनका 
चौधरी सोमपाल कहलाते हैं। 
दुष्टता, दुर्व्यसन, दूरिता से दूर 
प्रभु भक्ति के नशे में चूर 
सम्भला हुआ कर्म है जिनका 
ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी को चाहने वाले हैं। 

 [अनुभव शर्मा ]
कुछ प्रभु भक्त, कुछ दुनिया भक्त 
कुछ वैराग्यवान, कुछ कामवान 
कुछ पढ़ा लिखा, कुछ उन्मादी 
पर हूँ परेशान इस झूठी दुनिया से 
पर सच का मै रखवारा  हूँ। 
गुरुओं, माला, प्रभु और बालियों से डरने वाला हूँ। 
मैं भवानन्द शर्मा अनुभव 
सारे कारागार का प्यारा हूँ। 
मैं छोटी क़िस्मत वाला हूँ। 
पर यज्ञ देव का प्यारा हूँ। 

[नीरज शर्मा]
धन, वैभव, कीर्ति जिसके घर 
ऐसी क़िस्मत वाले हैं। 
वशिष्ठ गोत्र के स्वामी जो हैं 
नीरज शर्मा प्यारे हैं। 
गुण अनेक और अवगुण एक 
धैर्य, सहनशीलता मन में धारे हैं। 


[नैन सिंह]
डॉक्टर नैन सिंह बाष्टा वाले। 
हैं अधिकतम सदगुणों के रखवाले। 
नाश, क्रोध व व्यर्थ की बातों। 
में न उनका ध्यान, बनेंगे अत्युत्तम इंसान 
करेंगे परिवार, ग्राम, प्रदेश व देश का। 
योग व अध्यात्म से तथा बीमारों के इलाज से। 
अत्यधिक उत्थान। 

[अरुण शर्मा]
वाणी से कटु बहुत हैं भाई। 
दिल से हैं दुखी, और अत्यधिक परेशां 
कानून, समाज व परिवार से है इनको कुछ शिकायत भी 
मगर करते हैं पुरुषार्थ, सेवा तथा रखते है। 
महापुरुष, वेद, गीता में श्रद्धा अति महान 
ये भी हैं देश की अमर संतान। 



[मौ० साबिर पहलवान]
अल्लाह के बन्दे, प्रेमी, परोपकारी व बलवान 
नहीं हैं लेते रोज प्रभु का नाम, मगर 
जुम्मे की नमाज़, नहीं छोड़ते साबिर पहलवान।
याद है इनको हर गुर परोपकार का
करते हैं नए लोगों से पहचान और
दया दान नम्रता की मूरत
जैसे कोई अल्लाह की अच्छी संतान।


[जगराम सिंह सैनी ]
सैनी समाज से हैं भाई जगराम
अच्छाई, भक्ति, निर्देशन व सुविचार।
सब हैं इनकी अपनी ही पहचान।
याद सभी हैं सभी युक्तियाँ तथा विचार
दे सकते हैं अपनत्व व देश की खातिर
ये, अपनी जान, मगर जीवन है वीरान
कानून अंध के पंजे से हैं ये भी परेशान
प्रभु बचाये इनको, परिवार को, यहीं है मेरी तान। 


योग, सदाचार, पुरुषार्थ और कर्त्तव्य 
सब ही गुण ये न्यारे अति प्यारे हैं 
उपासना, कर्म, ज्ञान और  
सब अपने रखवारे हैं साइंस 
और मुक्ति को देने वाले हैं। 
इसलिए दिल में सब हमने, तुमने और उन्होंने उतारे हैं, रहे हैं और 
उतारेंगे 
निस्संदेह 
अवश्य। 



भाइयो बहनों इस प्रकार साम नीति के प्रयोग से हम अपराधियों को भी वश में कर सकते हैं, और उनको सन्मार्ग पर लाकर वास्तविक देशभक्त नागरिक के रूप में सुधार लाने में सफल हो सकते हैं। 



आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 
(१-२-२०१५ को जेल बिजनौर में लिखी )

Sunday, March 12, 2017

सेक्युलरिज़्म



ओ३म्

सेक्युलर भारत



जन्म लिया जो इस धरती पर कुछ होगी मुझमें अच्छाई।
सदाचार अपनाया मैंने और पाई सच्चाई ।
इस पृथ्वी पर भारत में जो पाया जन्म यह दुर्लभ।
भारत में भी शांत ग्राम है मेरा कर्म क्षेत्र जो भाई ।

स्वर्ग यहीं है मेरे देश में और मैं आज ही ज़िन्दा हूँ।
पर मेरे देश के सेक्युलरिज़्म से मन ही मन शर्मिंदा हूँ।



गई छोड़कर कांग्रेस और साइकिल और यह बसपा भी।
ले आई यूपी और यूके भाजपा का बस्ता भी।
जय जय मोदी हर हर मोदी घर घर मोदी आया है।
उम्मीदों ने पंख खोल कर लोकतंत्र अपनाया है।
भूतकाल के अत्याचार और दुराचरण से मेरा दिल घबराया है।
मैंने अपनी छाती पर अन्याय का ख़ंज़र खाया है ।

मैं कुशासन अन्याय के पोषक संविधान पर मन ही मन शर्मिंदा हूँ।
लगता है मैं क्यूकर अब भी सेक्यूलरिज़्म में ज़िन्दा हूँ।

मेरी कथा जो जेल सही है और पापों से था मैं दूर सुनो।
कद्दावर शातिर अपराधी थे मेरे चारों ओर सुनो।
फिर मुझे पापों का भाई क्यूँ कर ऐसा दंड मिला ।
क्यूँ निरपराधी जनता सहती है,  है जो अत्याचार खिला।
आज वजह है मूरख काले अंग्रेजों के कारण की।
३४ हज़ार काले उन नकल वाले क़ानून भयावह की।


सब लोगों से मैं हूँ बहुत दूर और आज जेब से मंदा हूँ।
इसीलिए मैं सेक्रुलरिज़म के फ़ंडे से शर्मिंदा हूँ।

इसीलिए हूँ शर्मिंदा और साम्प्रदाय जातिवाद से भी शर्मिंदा हूँ।

यह चीन बौद्ध है ब्रिटेन है क्रिश्चियन और पाक है मुस्लिम जी।
और अपना भारत न हिंदुस्तान है और न ही यह इंडिया जी।
सेकुलर भारत सेकुलरिज़्म भारत की हो गई पहचान है क्यूँ।
भारत तेरे लोगों की पहचान यहाँ पर खो गई क्यूँ ।

मन ही मन मैं सेक्युलरिज़्म की करता भाई निन्दा हूँ।
सेक्युलरिज़्म के फ़ंडे भाई तुझ से ही शर्मिंदा हूँ ।

ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन्
(स्वरचित)

Saturday, February 25, 2017

आए न सावन


आए न सावन


क्या करूँ भगवन आए न सावन।
बीते जाए दिन छिन आए न सावन।

जब तक  मिल न जाए तू सावन का अस्तित्व नहीं है ।
जब तक प्राण गँवा न दूँ अपना कोई चरित्र नहीं है।
जब तक मौज बहारें हैं सावन है पर तू ए मित्र नहीं है ।

क्या करूँ भगवन आए न सावन।

कर्म नाम पर भोग हैं धर्म नाम पर मौजें हैं।
पर ए मित्र इस स्वर्ग धरा पर तेरा तो अस्तित्व नहीं है।
तेरा अस्तित्व तो तब ही होगा जब धर्म कठिनाई और कर्म निष्काम।
अपनाए जाएंगे और वेद ज्ञान के विज्ञान जनाए जाएंगे ।

क्या करूँ भगवन आए न सावन।

पर मानव मौजें लेता है और खूब मजे में मस्त है।
और पितरयाण पर जीता है और आस आप की रखता है।
मानव मानव नहीं गद्दार धर्म के नाम है अत्याचार ।
तभी आए न सावन भगवन ।
तभी बंद हैं पावन कविता ।
तभी बन्द है सावन।

क्या करूँ भगवन आए न सावन।

धर्म नाम पर दृढ़ श्रम हो।
और धर्म नाम पर पूजा भी।
धर्म नाम पर सत्य ज्ञान को पढ़ते रहें पढ़ाते भी।
तो सावन फिर से आएगा।
तो जीवन फिर से आएगा।
स्वर्ग यही आ जाएगा।
हाँ स्वर्ग यहीं मिल जाएगा।
यही मिलेगा तू भी भगवन
यही देवता आएंगे।

पर क्या करूँ भगवन आए न सावन।
बीते जाएं दिन छिन आए न शुभ दिन।



ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
(स्वरचित)

Friday, February 24, 2017

मेरे भीतर बहुत क्रोध है

मेरे भीतर बहुत क्रोध है

मेरे भीतर बहुत क्रोध है।
करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

प्रिय की ये मीठी मुस्कान।
भरती क्यूँ जीवन में प्रान।
फिर क्यों बिछड़ गए हैं मीत।
कैसा ये रौरव संगीत।
गति का कैसा गतिरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

मदमस्त और मधुमस्त बसंत।
लेकर आता क्यूँ है अंत।
तपती सूरज की ये किरनें।
फिर है ग्रीष्म ऋतु क्यों लाती।
इसका मुझको नहीं बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

उलटे सीधे चक्र चलाकर।
किया इकट्ठा धन ये लाकर।
घर भर डाले तुमने अपने।
मिटे ग़रीबों के सब सपने।
होना इस का भी विरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

प्रभु से प्रीत लगा कर देखी।
यहीं पे जन्नत पा कर देखी।
अब क्यूँ दूर हुए हो आप।
मैंने कैसा किया था पाप।
प्रभु का ही ये सृष्टि बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

(पूज्य पिताजी की क़लम से )

इस कविता को उर्दू में पढ़ें
आपका अपना
भवानंद आर्य

मैं तो तेरे पास आ रहा हूँ


ओ३म्



दुनिया से दूर जा रहा हूँ।
और तेरे पास आ रहा हूँ।
मैं ओ प्रभु!

जिस तरहा बिजली तारों में समाई है।
जिस तरहा वायु जगत में भरमाई है।
है,  परन्तु देखी नहीं जाती।
उसी तरहा तेरी हस्ती इस संसार में मैंने पाई है।


चढ़ते सूरज से ज्ञान पा रहा हूँ।
और तेरे गुण गान गा रहा हूँ।
मैं ओ प्रभु!

चाय में चीनी और तपते गोले में अग्नि का अस्तित्व।
देख ह्रदय में मेरे हो चली है तेरी ही यादें मय चित्र और चरित्र ।
कब पूर्ण होगी मेरी साधना  इस बात की है मुझे बहुत तीव्र कामना ।

तुझे मिलने की आस पा रहा हूँ।
तेरे पहलू में ही मैं आ रहा हूँ।
ओ प्रभु!

ह्रदय में हो अंगुष्ठ मात्र आप ऐ स्वामी।
और जगत है सारा तूने अपने भीतर समेटा।
कहाँ कहाँ और है तेरा राज्य व निवास ।

तेरी हस्ती का पार नहीं पा पा रहा हूँ।
मैं तो तेरे पास आ रहा हूँ।
ओ प्रभु!


दुनिया से दूर जा रहा हूँ।
और मैं तेरे पास आ रहा हूँ।
ओ प्रभु!


प्रभु तेरी शरण में

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ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
(स्वरचित)