Thursday, February 28, 2019

राजपुरुषों के लिए - 5

जब कभी प्रजा का पालन करने वाले राजा को कोई अपने से छोटा, तुल्य और उत्तम संग्राम में आव्हान करे तो क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करके संग्राम में जाने से कभी निवृत्त न हों अर्थात बड़ी चतुराई के साथ उनसे युद्ध करे जिससे अपना ही विजय हो। 

जो संग्रामों में एक दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग जितना अपना सामर्थ्य हो बिना डर पीठ न दिखा युद्ध करते हैं वे सुख को प्राप्त होते हैं।  इससे विमुख कभी न हों।  किन्तु कभी कभी शत्रु को जीतने के लिए उनके सामने से छिप जाना उचित है।  क्यूंकि जिस प्रकार से शत्रु को जीत सकें वैसे काम करें।  जैसा सिंह क्रोध में सामने आकर शस्त्राग्नि में भस्म हो जाता है वैसे मूर्खता से नष्ट भ्रष्ट न हो जावें।  

युद्ध समय में न इधर उधर खड़े हुए, न नपुंसक, न हाथ जोड़े हुए, न जिस के सिर के बाल खुल गए हों, न बैठे हुए को, न "मैं तेरी शरण हूँ" ऐसे कहने वाले को, 

न सोते हुए को, न मूर्छा को प्राप्त हुए, न नग्न हुए, न शस्त्र से रहित, न युद्ध को देखने वाले को, न शत्रु के साथी को। 

न आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए को, न दुखी, न अत्यंत घायल, न डरे हुए, और न पलायन करते हुए पुरुष को, न सत्पुरुष के धर्म का स्मरण करते हुए को, योद्धा लोग कभी न मारें बल्कि पकड़ कर बंदीगृह में रख दें और भोजन छादन यथावत देवें।  और जो घायल हुए हों उन्हें औषधादि, भोजन छादन यथावत देवें।  न उनको चिढ़ावें न दुःख देवें।  जो उनके योग्य काम हो करवावें।  विशेष इस पर ध्यान रखें कि स्त्री, बालक, वृद्ध और आतुर तथा शोकातुर पुरुषों पर अस्त्र न चलावें।  उनके लड़के बालों को यथावत पालें और स्त्रियों को भी पालें।  उन को अपनी माँ , बहन और कन्या के तुल्य के समान समझे।  कभी विषयासक्ति की दृष्टि से भी ना देखें।  जब राज्य अच्छे प्रकार जम जाय और जिन में पुनः पुनः युद्ध करने की शंका न हो उनको सत्कारपूर्वक छोड़ कर अपने अपने घर व देश को भेज देवें। और जिन से भविष्यत् काल में विघ्न होना संभव हो उनको सदा कारागार में रखें। 


मनुस्मृति , सत्यार्थ प्रकाश - राजधर्म विषय - समुल्लास ६ से
द्वारा ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

1 comment: